Sunday, March 4, 2018

लफ्ज़ो का समंदर

लफ्ज़ो का समंदर

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है जमीं पे ठिकाना पर
मुझे आसमां घर बसाना है
ऐ चाँद उतर जमीन पे
या कह दे! क्या मुझे
ही तेरे घर पर आना है?
रुक!मत आ जमीं पे
मुझे चाँद के पार जाना है।
पँख नही तो क्या हुआ
हौसलों से यूँ उड़ जाना है
ये जमीं कम पड़ जाए
या आसमां उतर आए
हमे तो ऊपर उठकर
दरख़्तों से ऊंचा जाना है।
यूँ उदास मन बनके
तू बैठ साहिल किनारे
मुझे मौजों सा बीच मे
डूब के पार उतर जाना है।
खामोश यूँ दरिया से
रहना नही नियति मेरी
मुझे सागर से गरजना है
न बांध मुझे किनारों से
मुझे तो लफ्ज़ो का ही
बड़ा समंदर लहराना है।

©पंकज प्रियम
3.3.2018

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